मुनि तरूण सागर, महोपाध्याय ललितप्रभ सागर एवं मुनि चंद्रप्रभ सागर के जयपुर में चातुर्मास प्रवेश के साथ-साथ मुनि त्रय की विचारशीलता और सोच से भी जैन समुदाय का आम जन अब धीरे-धीरे परिचित होने लगा है। मुनि तरूण सागर ने जयपुर प्रवेश के तुरन्त बाद मेला प्राधिकरण के अध्यक्ष दिनेश खोडनिया के निवास पर पंचायतीराज मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीय, बांसवाड़ा जिला प्रमुख रेशम मालवीय सहित विभिन्न राजनेताओं ने मुनि जी से आशीर्वाद लिया! मुनि जी से आशीर्वाद लेने वाले राजनेताओं और नौकरशाहों में चार-पांच जैन समुदाय के लोगों को छोड़ दें तो बाकी सभी जैनेतर समुदाय से जुड़े लोग ही थे!
कार्यक्रम के अनुसार दिनेश खोड़निया के आवास पर विश्राम के बाद अगले दिन पंचायती राज मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीय के आवास होते हुए मुनि तरूण सागर बरडिय़ा कॉलोनी पहुंचे और शनिवार रात्रि विश्राम वहां किया। अपने धर्माचार्यों का चाहे वे दिगम्बर हों या फिर श्वेताम्बर, सम्मान करना जैन संस्कृति के हर एक व्यक्ति का दायीत्व होता है और हम भी जैन समुदाय के सभी समाजों के मुनियों, साधु-साध्वियों, यतिकुल व अन्य सम्मानित धर्माचार्यों का हृदय से सम्मान करते हैं।
इसके साथ-साथ हम यह भी जानना चाहते हैं कि शास्त्र सम्मत जिन सिद्धांतों, मान्यताओं और आदेशों-निर्देशों के आधीन हम अपने धर्माचार्यों को आदर सम्मान देते हैं, क्या वे उनकी पालना नियमित रूप से सक्षमता से करते हैं अथवा नहीं! अगर करते हैं तो कितनी सक्षमता से और अगर नहीं करते हैं तो क्यों?
जैन समुदाय में चातुर्मास, पर्युषण पर्व एवं दसलक्षण पर्व का अत्यन्त महत्व होत है। इन पर्वों को मनाने के लिये जो शास्त्र सम्मत सिद्धांत, आदेश-निर्देश व मान्यताऐं हैं उनका शुद्ध रूप से पालन कर इन पर्वों का प्रारम्भ और पूर्णाहुति की जाती है। क्या हमारे सम्माननीय संत मुनि तरूण सागर, महोपाध्याय ललितप्रभ सागर और मुनि चंद्रप्रभ सागर हमें समझायेंगे कि उनके चातुर्मास प्रवास, आवास एवं पर्युषण पर्व एवं दसलक्षण पर्व के प्रारम्भ एवं पूर्ण आहुति शास्त्र सम्मत तरीके से करवाने में उनका क्या योगदान रहेगा!
मुनि तरूण सागर का चातुर्मास आवास भट्टारक जी की नसियां नारायण सिंह सर्किल पर रहेगा। हमें जहां तक जानकारी मिली है मुनि श्री भट्टारक जी की नसियां में दशलक्षण पर्व से सम्बन्धित समस्त विधियां और क्रियाऐं सम्पन्न करेंगे और करवायेंगे।
जबकि महोपाध्याय ललितप्रभ सागर और चंद्रप्रभ सागर के चातुर्मास आवास के मामले में उन्ही के समुदाय खरतरगच्छ के श्रद्धालुओं तक को पता नहीं है कि वे चातुर्मास आवास कहां बनायेंगे?
दिशाऐं जिनके वस्त्र हों या फिर श्वेत वस्त्र हों, इनके जरिये हमारे सन्यासी कोई संदेश पिछले 2040 वर्ष में नहीं दे पाये हैं! आज से 2040 वर्ष पूर्व एकीकृत जैन संस्कृति के दो दिग्गज साधुओं जोकि गुरूभाई भी थे, उन गुरूभाइयों भद्रबाहू और स्थूलभद्र में अहम (अहंकार) के कारण आपसी मनमुटाव के चलते जैन संस्कृति दो भागों में विभक्त हो गई। भद्रबाहू के अनुयायी दिगम्बर कहलाये और स्थूलभद्र के अनुयायी श्वेताम्बर! जैन संस्कृति के विभाजन के पीछे कोई भी सैद्धांतिक तार्किक कारण नहीं थे, फिर भी पिछले 2040 सालों से एक धारा के दो किनारों की तरह समानान्तर निरन्तर अविचल अग्रसर हो रही है।
अब सवाल उठता है कि क्या गंगा के दोनों किनारे एक हो सकते हैं? क्या यमुना, मंदाकिनी, अलखनंदा के किनारे एक हो सकते हैं? कदापि नहीं! इसही तरह जैन संस्कृति भी एक धारा है और उसके दो किनारे दिगम्बर और श्वेताम्बर बना दिये गये। हमारी स्थिति मूल धारा में लौटने की नहीं है और धारा के दो किनारे एक नहीं हो सकते हैं तो फिर श्वेताम्बर-दिगम्बर कैसे एक हो सकते हैं? यह तो तीनों संत ही हमें सही तरीके से समझा सकते हैं!
अब सवाल है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर से पहिले दोनों धडों में अन्दरूनी एकता का! श्वेताम्बर समाज में मंदिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापंथी और इन तीनों में भी विभिन्न धडे आपसमें एक होने की स्थिति में नहीं हैं तो फिर श्वेताम्बर-दिगम्बर एकता की बांग क्यों?
इधर दिगम्बर समुदाय में भी इस ही तरह धडे बने हुए हैं जिन में एकता की कोई गुंजाइश होने का सवाल ही नहीं उठता है!
लेकिन एक अहम अनुत्तरित सवाल का भी हम जवाब तलाश रहे हैं कि लगभग चार करोड़ रूपये के खर्चे से पांडाल तैयार करवा कर, आडम्बरपूर्ण तामझामों और लच्छेदार, कड़वे प्रवचनों के बीच क्या दिगम्बर-श्वेताम्बर एकता सम्भव है! शायद कदापि नहीं! तो फिर क्या यह सारा आयोजन-तामझाम इन संतों को प्रचारित करने के लिये भीड़ जुटाने मात्र के लिये है। वैसे हमारे सामने स्थिति स्पष्ट है कि हमारे सवाल कुल मिला कर अनुत्तरित रही रहेंगे। लेकिन सवाल तो सवाल ही हैं, जवाब हो या ना हों!
कार्यक्रम के अनुसार दिनेश खोड़निया के आवास पर विश्राम के बाद अगले दिन पंचायती राज मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीय के आवास होते हुए मुनि तरूण सागर बरडिय़ा कॉलोनी पहुंचे और शनिवार रात्रि विश्राम वहां किया। अपने धर्माचार्यों का चाहे वे दिगम्बर हों या फिर श्वेताम्बर, सम्मान करना जैन संस्कृति के हर एक व्यक्ति का दायीत्व होता है और हम भी जैन समुदाय के सभी समाजों के मुनियों, साधु-साध्वियों, यतिकुल व अन्य सम्मानित धर्माचार्यों का हृदय से सम्मान करते हैं।
इसके साथ-साथ हम यह भी जानना चाहते हैं कि शास्त्र सम्मत जिन सिद्धांतों, मान्यताओं और आदेशों-निर्देशों के आधीन हम अपने धर्माचार्यों को आदर सम्मान देते हैं, क्या वे उनकी पालना नियमित रूप से सक्षमता से करते हैं अथवा नहीं! अगर करते हैं तो कितनी सक्षमता से और अगर नहीं करते हैं तो क्यों?
जैन समुदाय में चातुर्मास, पर्युषण पर्व एवं दसलक्षण पर्व का अत्यन्त महत्व होत है। इन पर्वों को मनाने के लिये जो शास्त्र सम्मत सिद्धांत, आदेश-निर्देश व मान्यताऐं हैं उनका शुद्ध रूप से पालन कर इन पर्वों का प्रारम्भ और पूर्णाहुति की जाती है। क्या हमारे सम्माननीय संत मुनि तरूण सागर, महोपाध्याय ललितप्रभ सागर और मुनि चंद्रप्रभ सागर हमें समझायेंगे कि उनके चातुर्मास प्रवास, आवास एवं पर्युषण पर्व एवं दसलक्षण पर्व के प्रारम्भ एवं पूर्ण आहुति शास्त्र सम्मत तरीके से करवाने में उनका क्या योगदान रहेगा!
मुनि तरूण सागर का चातुर्मास आवास भट्टारक जी की नसियां नारायण सिंह सर्किल पर रहेगा। हमें जहां तक जानकारी मिली है मुनि श्री भट्टारक जी की नसियां में दशलक्षण पर्व से सम्बन्धित समस्त विधियां और क्रियाऐं सम्पन्न करेंगे और करवायेंगे।
जबकि महोपाध्याय ललितप्रभ सागर और चंद्रप्रभ सागर के चातुर्मास आवास के मामले में उन्ही के समुदाय खरतरगच्छ के श्रद्धालुओं तक को पता नहीं है कि वे चातुर्मास आवास कहां बनायेंगे?
दिशाऐं जिनके वस्त्र हों या फिर श्वेत वस्त्र हों, इनके जरिये हमारे सन्यासी कोई संदेश पिछले 2040 वर्ष में नहीं दे पाये हैं! आज से 2040 वर्ष पूर्व एकीकृत जैन संस्कृति के दो दिग्गज साधुओं जोकि गुरूभाई भी थे, उन गुरूभाइयों भद्रबाहू और स्थूलभद्र में अहम (अहंकार) के कारण आपसी मनमुटाव के चलते जैन संस्कृति दो भागों में विभक्त हो गई। भद्रबाहू के अनुयायी दिगम्बर कहलाये और स्थूलभद्र के अनुयायी श्वेताम्बर! जैन संस्कृति के विभाजन के पीछे कोई भी सैद्धांतिक तार्किक कारण नहीं थे, फिर भी पिछले 2040 सालों से एक धारा के दो किनारों की तरह समानान्तर निरन्तर अविचल अग्रसर हो रही है।
अब सवाल उठता है कि क्या गंगा के दोनों किनारे एक हो सकते हैं? क्या यमुना, मंदाकिनी, अलखनंदा के किनारे एक हो सकते हैं? कदापि नहीं! इसही तरह जैन संस्कृति भी एक धारा है और उसके दो किनारे दिगम्बर और श्वेताम्बर बना दिये गये। हमारी स्थिति मूल धारा में लौटने की नहीं है और धारा के दो किनारे एक नहीं हो सकते हैं तो फिर श्वेताम्बर-दिगम्बर कैसे एक हो सकते हैं? यह तो तीनों संत ही हमें सही तरीके से समझा सकते हैं!
अब सवाल है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर से पहिले दोनों धडों में अन्दरूनी एकता का! श्वेताम्बर समाज में मंदिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापंथी और इन तीनों में भी विभिन्न धडे आपसमें एक होने की स्थिति में नहीं हैं तो फिर श्वेताम्बर-दिगम्बर एकता की बांग क्यों?
इधर दिगम्बर समुदाय में भी इस ही तरह धडे बने हुए हैं जिन में एकता की कोई गुंजाइश होने का सवाल ही नहीं उठता है!
लेकिन एक अहम अनुत्तरित सवाल का भी हम जवाब तलाश रहे हैं कि लगभग चार करोड़ रूपये के खर्चे से पांडाल तैयार करवा कर, आडम्बरपूर्ण तामझामों और लच्छेदार, कड़वे प्रवचनों के बीच क्या दिगम्बर-श्वेताम्बर एकता सम्भव है! शायद कदापि नहीं! तो फिर क्या यह सारा आयोजन-तामझाम इन संतों को प्रचारित करने के लिये भीड़ जुटाने मात्र के लिये है। वैसे हमारे सामने स्थिति स्पष्ट है कि हमारे सवाल कुल मिला कर अनुत्तरित रही रहेंगे। लेकिन सवाल तो सवाल ही हैं, जवाब हो या ना हों!