पिछले दिनों राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अधिस्वीकृत पत्रकारों को पेंशन देने की घोषणा की थी। उसके बाद एक ओर घोषणा हुई, लेपटॉप देने की! इससे पहिले पत्रकारों को आवास देने के लिये आवेदन पत्र भरवाये गये थे। लेकिन गहलोत साहब की ये तीनों ही योजनाऐं फ्लाप शो साबित हो चुकी है। उसके पीछे एक ही कारण हो सकता है कि बड़े अखबारों के नौकरशाह पत्रकारों को तवज्जो देना या फिर पच्चीस कापी छापु चापलूसों को फायदा पहुंचाना।
हमारे परम लोकप्रिय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बड़े अखबारों पर इतने मेहरबान हैं कि उन्हें विज्ञापनों की बंदरबांट के लिये पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से इकठ्ठा हुए सरकारी खजाने की सारी तिजारियां खोल दी। लेकिन छोटे अखबारों के बारे में गहलोत साहब के सोच की बात कहें तो कलमघिस्सुओं के इन छोटे अखबारों को राजस्थान दिवस के विज्ञापन से भी महरूम रखा गया। क्या गहलोत साहब के जहन में छोटे अखबारों की कोई अहमियत ही नहीं है!
जिस तरह छोटे और बड़े अखबारों के बीच लक्ष्मण रेखा सरकारी स्तर पर खैंची जा रही है वह निहायत निन्दनीय है। हम जानते हैं कि पत्रकारिता के पेशे में कुछ व्यवसायी, पूंजीपति, भू-माफिया, बिल्डर माफिया तथा मीडिया माफिया घुस गये हैं। उनका उद्देश्य अपने हित साधन के साथ-साथ सरकारी खजाने को ज्यादा से ज्यादा लूटना ही रहता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सारे ही पत्रकार इस श्रेणी के हैं।
छोटे अखबारों और पत्रकारों की समस्या यह भी है कि उनके नाम पर बने संगठन और उनके पदाधिकारी छोटे अखबारों के नाम पर मलाई लूट रहे हैं। राज्य में लगभग छह सौ साप्ताहिक और पाक्षिक समाचार पत्र हैं। राज्य सरकार उन्हें साल में पांच डेकोरेटिव विज्ञापन दे दे तो भी मात्र एक करोड़ रूपये का बजट चाहिये। जबकि बड़े अखबारों का बजट इस बजट से 10 गुना से 50 गुना ज्यादा है। राज्य में जितने भी पत्रकार संघ हैं, अगर उनकी सदस्यता पर गौर किया जाये, तो इन संघों की सदस्यता का 15 प्रतिशत भी छोटे अखबारों से नहीं आते। इन संगठनों ने आज तक एक भी ऐसा प्रस्ताव अपने अधिवेशनों में पारित नहीं किया है जो छोटे अखबारों के हित में हों। नौकरशाह पत्रकारों के हित साधन में ही जुटे हैं।
हमारे परम लोकप्रिय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बड़े अखबारों पर इतने मेहरबान हैं कि उन्हें विज्ञापनों की बंदरबांट के लिये पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से इकठ्ठा हुए सरकारी खजाने की सारी तिजारियां खोल दी। लेकिन छोटे अखबारों के बारे में गहलोत साहब के सोच की बात कहें तो कलमघिस्सुओं के इन छोटे अखबारों को राजस्थान दिवस के विज्ञापन से भी महरूम रखा गया। क्या गहलोत साहब के जहन में छोटे अखबारों की कोई अहमियत ही नहीं है!
जिस तरह छोटे और बड़े अखबारों के बीच लक्ष्मण रेखा सरकारी स्तर पर खैंची जा रही है वह निहायत निन्दनीय है। हम जानते हैं कि पत्रकारिता के पेशे में कुछ व्यवसायी, पूंजीपति, भू-माफिया, बिल्डर माफिया तथा मीडिया माफिया घुस गये हैं। उनका उद्देश्य अपने हित साधन के साथ-साथ सरकारी खजाने को ज्यादा से ज्यादा लूटना ही रहता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सारे ही पत्रकार इस श्रेणी के हैं।
छोटे अखबारों और पत्रकारों की समस्या यह भी है कि उनके नाम पर बने संगठन और उनके पदाधिकारी छोटे अखबारों के नाम पर मलाई लूट रहे हैं। राज्य में लगभग छह सौ साप्ताहिक और पाक्षिक समाचार पत्र हैं। राज्य सरकार उन्हें साल में पांच डेकोरेटिव विज्ञापन दे दे तो भी मात्र एक करोड़ रूपये का बजट चाहिये। जबकि बड़े अखबारों का बजट इस बजट से 10 गुना से 50 गुना ज्यादा है। राज्य में जितने भी पत्रकार संघ हैं, अगर उनकी सदस्यता पर गौर किया जाये, तो इन संघों की सदस्यता का 15 प्रतिशत भी छोटे अखबारों से नहीं आते। इन संगठनों ने आज तक एक भी ऐसा प्रस्ताव अपने अधिवेशनों में पारित नहीं किया है जो छोटे अखबारों के हित में हों। नौकरशाह पत्रकारों के हित साधन में ही जुटे हैं।
अब राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राज्य के पत्रकार संगठनों के आका ही बतायें कि छोटे अखबारों के 65 पार अधिस्वीकृत सीनियर सिटीजन पत्रकारों को कब पेंशन देना शुरू करवा रहे हैं। उन्हें कब लेपटॉप मिलेगा! यह भी बता दें कि ये सुविधाऐं सीनियर सिटीजन पत्रकारों को इस ही जन्म में मिलेंगी या उन्हें अगले जन्म तक इन्तजार करना पड़ेगा!