न्यायालयों के एक के बाद एक फैसले ने देश की विधायिका और कार्यपालिका की जड़ों को हिला कर रख दिया है। अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक मामले में दोषी ठहराये जाने के बावजूद निर्वाचित जनप्रतिनिधी को अयोग्यता से संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनी प्रावधान को स्पष्ट रूप से निरस्त कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य अहम फैसला दिया है कि जेल में बंद या पुलिस हिरासत में रहते हुए कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है। अदालत का कहना है कि सिर्फ एक मतदाता ही चुनाव लड़ सकता है। चूंकि कोई भी व्यक्ति जेल में बंद रहते या पुलिस हिरासत में रहते वोट नहीं दे सकता है, ऐसी स्थिति में उसे यह अधिकार भी नहीं है कि वह चुनाव लड़ सके। हालांकि अदालत ने यह भी साफ किया कि उन लोगों के चुनाव लडऩे पर रोक नहीं लगेगी, जिन्हें किसी कानून के तहत ऐहतियातन हिरासत में लिया गया हो। उधर इलाहबाद हाईकोर्ट ने भी उत्तर प्रदेश में राजनैतिक दलों की जातिगत रैलियों पर रोक लगाने का अहम फैसला सुनाया है।
जो काम विधायिका और कार्यपालिका को करना चाहिये, उसको इन संस्थाओं द्वारा नजरन्दाज करने का ही नतीजा है कि न्यायपालिका को यह जुम्मेदारी निभानी पड़ी। यहां पर अहम सवाल उठता है कि आखीरकार क्यों विधायिका और कार्यपालिका अपने दायीत्वों का निर्वहन सही ढंग से नहीं कर रही है? विधायिका और कार्यपालिका के कर्तव्य निर्वहन के तौर तरीकों के पिछले एक दशक के इतिहास को देखें तो स्थितियां आइने की तरह साफ हो जायेगी। विधायिका का चयन और उसके द्वारा कार्यपालिका का गठन और नियुक्तियां इसलिये अवाम करता है कि राष्ट्रीय स्तर पर उसके दु:खदर्दों, समस्याओं का निराकरण ये दोनों संस्थायें मिलकर करें। लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये सत्तालोलुपों ने इन संस्थाओं को पंगु बना दिया है और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये इन संस्थाओं के दुरूपयोग की उनकी करतूतें अन्तहीन होती जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय और इलाबाद उच्च न्यायालयों के ताजातरीन फैसलों ने राजनेताओं की निजी स्वार्थपूर्ति हेतु जारी अन्तहीन करतूतों पर जिस तरह सख्ती से अंकुश लगाया गया है वह स्वागत योग्य है। काश न्यायपालिका द्वारा लिये गये फैसलों से पहिले विधायिका और कार्यपालिका ही अवाम के हित में अपने बारे में खुद ही फैसला ले लेती तो उसकी साख कायम रहती। खैर देर आयद्-दुरूस्त आयद! उनका काम तो अब न्यायपालिका ने कर ही दिया है और सभी को न्यायपालिका के आदेशों को स्वीकार कर ही लेना चाहिये।
जो काम विधायिका और कार्यपालिका को करना चाहिये, उसको इन संस्थाओं द्वारा नजरन्दाज करने का ही नतीजा है कि न्यायपालिका को यह जुम्मेदारी निभानी पड़ी। यहां पर अहम सवाल उठता है कि आखीरकार क्यों विधायिका और कार्यपालिका अपने दायीत्वों का निर्वहन सही ढंग से नहीं कर रही है? विधायिका और कार्यपालिका के कर्तव्य निर्वहन के तौर तरीकों के पिछले एक दशक के इतिहास को देखें तो स्थितियां आइने की तरह साफ हो जायेगी। विधायिका का चयन और उसके द्वारा कार्यपालिका का गठन और नियुक्तियां इसलिये अवाम करता है कि राष्ट्रीय स्तर पर उसके दु:खदर्दों, समस्याओं का निराकरण ये दोनों संस्थायें मिलकर करें। लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये सत्तालोलुपों ने इन संस्थाओं को पंगु बना दिया है और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये इन संस्थाओं के दुरूपयोग की उनकी करतूतें अन्तहीन होती जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय और इलाबाद उच्च न्यायालयों के ताजातरीन फैसलों ने राजनेताओं की निजी स्वार्थपूर्ति हेतु जारी अन्तहीन करतूतों पर जिस तरह सख्ती से अंकुश लगाया गया है वह स्वागत योग्य है। काश न्यायपालिका द्वारा लिये गये फैसलों से पहिले विधायिका और कार्यपालिका ही अवाम के हित में अपने बारे में खुद ही फैसला ले लेती तो उसकी साख कायम रहती। खैर देर आयद्-दुरूस्त आयद! उनका काम तो अब न्यायपालिका ने कर ही दिया है और सभी को न्यायपालिका के आदेशों को स्वीकार कर ही लेना चाहिये।