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बहुत शोर है नक्सलवाद-माओवाद का! लेकिन हकीकत क्या है हुजूरों?-2

पिछले अंक में हमने नक्सलवाद और माओवाद के बीच के अन्तर को उजागर करने के कोशिश की थी। हमने स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि नक्सलबाडी जनसंघर्ष ओर माओवादी संघर्ष दो अलग-अलग विचारधारा ओर जनआंदोलन हैं। पश्चिम बंगाल के सिलीगुडी जिले के नक्सलबाडी में जागीरदारों, भूमाफियाओं, पूजीपतियों ओर सरकारी हुक्कामों की तिकडी की संयुक्त साजिशों से पीडि़त आदिवासियों, किसानों ने अपने शोषण के खिलाफ उग्र जनसंघर्ष शुरू किया था, जिसे नक्सलबाडी जनसंघर्ष का नाम दिया गया! यह नक्सलबाडी जनसंघर्ष विशुद्ध रूप से शोषित-पीडि़त वर्ग का शोषक जागीरदारों-भूस्वामियों, भूमाफियाओं, पूंजीपतियों और सरकारी हुक्कामों द्वारा गरीबों के छीने जा रहे हकों को वापस प्राप्ति का संघर्ष था, जो बाद में नक्सलबाडी जनसंघर्ष और बाद में नक्सलवाद के नाम से पूरे देश में फैला!
इस आंदोलन की जड़ में वर्तमान झारखंड के क्रान्तिकारी पुरोधा बिरसा मुण्डा का जनसंघर्ष, राजस्थान के आदिवासी क्रान्तिकारी गोविन्द गुरू, स्वामी सहजानन्द सरस्वती के जनसंघर्षों की पृष्ठ भूमि रही है। जबकि माओवादी विशुद्ध रूप से चीन के सर्वोच्च सत्ताधीश माओत्से तंग की विचारधारा और उनकी लाल किताब में उल्लेखित निर्देशों को मानने वाले उनके अनुयाइयों द्वारा संचालित वर्ग संघर्ष है।
चूंकि नक्सलवाद के अगुआ चारू मजूमदार (चारू दा) के देहान्त के बाद और कनु सन्याल (कनु दा) को एक हत्या के मामले में 18 साल की सजा होने के बाद नक्सलबाडी जनसंघर्ष (नक्सलवादी संघर्ष) पर ठण्डे छींटे पड़ गये, उधर अस्सी के दशक में देश में लाल कारीडोर बनने की स्थिति रही और जैसा कि हमने पिछले अंक में बताया था कि नक्सलबाडी जनसंघर्ष से जुड़े आंदोलनकारी नक्सली जनसंघर्ष के नेतृत्व विहीन हो जाने के कारण टुकडों में बंट गये और धीरे-धीरे पीडब्लूजी, सीपीआई (एम-एल) जैसे माओवादी संगठनों से जुड़ते चले गये। इस तरह नक्सलबाडी जनसंघर्ष की कब्र पर माओवादी संगठन पनपे!
जो लोग माओवादी क्रियाकलापों में नक्सलवादियों को जोड़ते हैं और पानी पी-पी कर नक्सलवादियों को कोसते हैं उनसे हमारा एक सवाल है कि वे साफ-साफ बतायें कि मुपल्ला लक्षमण राव उर्फ गणपति, नाम्बला केशवराव उर्फ वसवराज उर्फ गगन्ना, थिप्परी तिरूपति उर्फ देओजी उर्फ देवन्ना, बलमूरी नारायण राव उर्फ प्रभाकर, सोमजी उर्फ सहदेव, कटकम सुदर्शन (सभी आंध्रप्रदेश), जिन पर राज्य और केंद्र स्तर पर लाखों रूपये के इनाम घोषित हैं तथा पुलिस एनकाउंटर में मारे गये कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी, चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद तथा पुलिस गिरफ्त में आये कोबड़ गांधी, नारायन सन्याल और अभिताभ बागची में से कौन माओवादी है और कौन नक्सलवादी? अगर सरकारी रेकार्ड को मथा जाये तो साफ हो जायेगा कि ये सभी लोग कट्टर माओवादी हैं और उनका नक्सलवाद से दूर तक का कोई लेना देना नहीं है।
पिछले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की हकीकत पर नजर डालें तो इन चुनावों में माओवादियों ने तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबंधन को भरपूर सहयोग किया था। वहीं नक्सलवादी वाम जनवादी दलों को अपना समर्थन दे रहे थे। सिर्फ कनु सन्याल के नेतृत्व में कुछ नक्सली कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को समर्थन दे रहे थे।
अब सरकार और नक्सलवादियों को कोसने वाले खुद ही बतायें कि माओवाद और नक्सलवाद में अंतर क्या है? नक्सलवाद पर शोर मचाने वाले बतायें राष्ट्रीय स्तर के दस-बीस नक्सलवादियों के नाम जिन्हें नक्सलवादियों का नेता कहा जाता हो!
अब एक सवाल मध्यप्रदेश और राजस्थान से जुड़ा है। गोविन्द गुरू के बाद मध्यप्रदेश एवं राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में मामा बालेश्वर दयाल की आदिवासियों पर अच्छी पकड़ रही है और वे आदिवासियों के सर्वमान्य नेता माने जाते रहे थे। मामा राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपूर, उदयपुर, चित्तौडग़ढ़, प्रतापगढ़, कोटा, सिरोही जिलों के आदिवासी क्षेत्रों में अत्याधिक लोकप्रिय रहे हैं। क्या उनके अनुयाइयों को नक्सली आरोपित किया जा सकता है? बतायें सत्ताधीश!
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने आदिवासियों पर अपनी पकड़ बनाने के लिये इन्हें वनवासी का नाम देकर वनवासी कल्याण के नाम पर संस्थाऐं बना कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया। बहाना बनाया ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों को अंकुशित करने का! लेकिन आरएसएस हो या भाजपा, कांग्रेस हो या फिर वामदल, सभी ने आदिवासियों का शोषण किया लेकिन इनके पास इन राजनैतिक दलों को वोट देने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। अगर मतदाता मशीन में वोट नहीं देने का विकल्प हो तो 80 प्रतिशत आदिवासी उसी विकल्प को चुनेंगे।
राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर, सिरोही, पाली, जालोर, कोटा, बाड़मेर, प्रताबगढ़, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा सहित 15 जिलों में आदिवासी समुदाय पीडि़त शोषित वर्गों में भी अंतिम श्रेणी में है। इस समुदाय में सत्ताधीशों के प्रति गहरी नाराजगी है! भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और उससे जुड़ी अन्य संस्थाओं के जरिये आदिवासियों पर धीरे-धीरे पुन: पकड बना रही है। ऐसी स्थिति से कांग्रेसी नेताओं के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगी है। उधर, लगता है कि सत्ता के उच्च स्तरों पर माओवादियों की गतिविधियों के बारे में इनपुट के कारण भी सत्ताधीशों के हाथों से तोते उड़ते नजर आ रहे हैं!
सत्ताधीशों को यह चिंता सताने लगी है कि झाबुआ-रतलाम के रास्ते बांसवाड़ा, डूंगरपूर, कोटा, उदयपुर, चित्तौडग़ढ़ और प्रतापगढ़ क्षेत्र में माओवादी लाल कारिडोर बनाने की कोई योजना तो नहीं बना रहे हैं! राजनैतिक पार्टियों, नेताओं और सरकारी अमले के आगामी चुनावी महाभारत में जुटने के दौरान कहीं माओवादी आदिवासियों को विश्वास में लेकर लाल कारीडोर बनाने में थोडी भी सफलता प्राप्त करते हैं तो राज्य का आने वाला समय संघर्ष पूर्ण हो सकता है। क्रमांक:

 
AGRAGAMI SANDESH

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