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बहुत शोर है नक्सलवाद-माओवाद का! लेकिन हकीकत क्या है हुजूरों?

छत्तीसगढ़ दण्डकारण्य जंगलों के बस्तर क्षेत्र सुकमा जिले के दरभा-जीरमघाटी इलाके में गत 25 मई को माओवादियों ने जो प्रतिशोधात्मक कार्यवाही की उसके कई मायने निकल कर आ रहे हैं। कांग्रेसी और भाजपाई नेता छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आगामी नवम्बर में होने वाले चुनावों के मद्देनजर आरोप-प्रत्यारोपों की दलदल में गहराई तक उतर गये हैं। उधर केंद्र की डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार भी बस्तर की हजारों करोड़ रूपये की प्राकृतिक सम्पदाओं को अरबपतियों, पूंजीपतियों, भूमाफियाओं, खनन माफियाओं, जंगल माफियाओं तथा सरमायेदारों और उन के पिछलग्गू-दुमछल्लों को सुपुर्द करने के लिये आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के अधिकारों को नेस्तनाबूद करने पर तुली है और इसका विरोध करने वाले आदिवासियों को, माओवादी-नक्सलवादी करार देकर अर्धसैनिक बलों और सेना का उपयोग कर कुचल रही है।
सुकमा जिले के दरभा-जीरमघाटी क्षेत्र में कथित माओवादियों द्वारा की गई प्रतिशोधात्मक कार्यवाही साफ-साफ दर्शाती है कि आदिवासियों पर कहर बरपाने वाले हर कदम का आदिवासी अपनी जिंदगी के अंतिम क्षण तक डट कर मुकाबला कर अपने हितों की रक्षा करेगा।
आदिवासियों और सत्ताधीशों के बढ़ते टकराव के पीछे के असली कारणों को छुपा कर सत्ताधीश आदिवासियों को माओवादी-नक्सलवादी आरोपित कर उन्हें अपमानित-प्रताडि़त और बदनाम कर उन पर अत्याचारों का एक सोची समझी साजिश के तहत एक लम्बा सिलसिला जारी रखे हुए है।
पिछले दिनों राजस्थान, मध्यप्रदेश सहित अन्य प्रदेशों से प्रकाशित होने का दावा करने वाले एक दैनिक ने अपने प्रकाशन में दो पेजों में माओवादियों और नक्सलवादियों को जम कर कोसा था! हालांकि उन दो पृष्ठों में तथ्यात्मक कुछ भी नहीं था। वैसे भी पूंजीवादी मीडिया जो बड़े-बड़े पूंजीपतियों और सरकारी विज्ञापनों पर पले बढ़े हैं और फल फूल रहे हैं उनके पास गरीबों के पक्ष में कहने के लिये न तो कुछ था और न ही है। देश की आजादी के संघर्ष में भी बड़े अखबारों का कोई योगदान नहीं रहा है। दरअसल पूंजीपतियों और सरकारी संरक्षण में फल फूल रहे इन अखबारों के रंगरूट जर्नलिस्टों को तो यह भी पता नहीं है कि नक्सलवादियों और माओवादियों में फर्क क्या है?
मीडिया के इन रंगरूटों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि भारत गणतंत्र के एक शक्तिशाली प्रदेश जो कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कर्मस्थली रहा है, उस बंगाल (जिसके अंग्रेजों ने दो दुकड़े कर दिये थे) के सिलिगुडी जिले के नक्सलबाडी गांव में जागीरदारों, पूंजीपति भूमाफियाओं और सरकारी हुक्कामों की तिकड़ी से संघर्ष के लिये एक जनआंदोलन शुरू हुआ था जिसे नक्सलवादी जनसंघर्ष के रूप में जाना गया और आज इसे नक्सलवाद के रूप में जाना जाता है! नक्सलवाद और माओवाद साफ-साफ दो अलग जनआंदोलन हैं और दोनों का एक दूसरे से कोई लेनादेना नहीं है। नक्सबाडी आंदोलन से पहिले, देश की आजादी के आंदोलन के वक्त भी भूस्वामियों, जागीरदारों, सरमायेदारों और अंग्रेजी सल्तनत के पिछलग्गू राजे-रजवाडों के खिलाफ जनआंदोलन चलते रहे हैं, लेकिन गरीबों के उन आंदोलनों का कोई नाम नहीं होता था। नक्सलबाडी के उग्र जनसंघर्ष ने गरीबों के इस जनसंघर्ष को नक्सलबाडी जनसंघर्ष का रूप दिया और धीरे-धीरे यह जनआंदोलन आज की भाषा में नक्सलबाडी की जगह नक्सलवादी के नाम से जाना जाने लगा है। जो लोग नक्सलवाद और माओवाद की बेमेल की खिचडी पकाने में जुटे हैं उन्हें पता होना चाहिये कि नक्सलवादी आंदोलन की जड़ खोदने वाले तो दअसल माओवादी ही हैं।
नक्सलवादी जनसंघर्ष की जड़ों में आजादी से पहिले गरीब किसानों, ग्रामीण दस्तकारों द्वारा भूस्वामियों, जागीरदारों, राजे-रजवाड़ों के अत्याचारों के खिलाफ चल रहे जनसंघर्ष और गरीबों के बलिदान का इतिहास है। चारू दा (चारू मजूमदार) और कनूदा (कनु संन्याल) ने वामपंथी पार्टियों के पदाधिकारी बन कर बैठे सामन्ती तत्वों की सरकार परस्त नीतियों और पार्टी के अन्दर पनपे सामन्तवाद और इन पार्टियों की गरीबों से बढ़ती दूरियों के मद्देनजर वाम दल से नाता तोड कर नक्सलबाडी के जनसंघर्ष को सम्भाला!
कनू सन्याल जहां उग्र जनसंघर्ष में विश्वास रखते थे वहीं चारू मजूमदार नरमपंथी विचारधारा के तहत सशक्त आंदोलनात्मक जनसंघर्ष में विश्वास रखते थे। दोनों में विचारधारा के टकराव के कारण अलगाव हुआ। चारू दा क्षय रोग (टीबी) से पीडित थे और इस बीमारी के चलते अन्तत: उनका देहान्त हो गया। वहीं नब्बे के दशक में कनु सन्याल को भी एक हत्या के मामले में 18 साल की जेल हो गई। इस तरह नक्सलबाडी आंदोलन नेतृत्व विहीन होकर और सरकारी दमन की चक्की में पिस कर पतन के रास्ते चला गया। 18 साल की सजा काट कर कनु सन्याल जब दो साल पहिले जेल से निकले तब तक नक्सलबाडी आंदोलन छिन्न-भिन्न हो चुका था।
उधर भारत-चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया स्पष्ट रूप से विभाजित हो गई और चीन और रूस समर्थक दो धडों सीपीआई और सीपीआईएम में विभाजित हो गई। पार्टी स्तर पर जब इन दलों के चरमपंथी नेताओं को कोई तवज्जो नहीं मिली तब पीडब्लूजी और सीपीआई (एमएल) जैसी पार्टियों की स्थापना हुई। इनके मूर्तरूप लेने के बाद नक्सलबाडी जनसंघर्ष लगभग समाप्त हो गया। क्योंकि इस जनसंघर्ष से जुडे कार्यकर्ता इन चरमपंथी पार्टियों में शामिल हो गये और अन्तत: नक्सलवादी जनसंघर्ष की कब्र पर माओवादी सत्ता की शुरूआत हुई!
इस तरह एक बात साफ है कि नक्सलबाडी जनसंघर्ष (नक्सलवाद) और माओवादी आंदोलनों में जमीन आसमान का अंतर है। जहां नक्लवादी गरीब किसानों, मजदूरों और ग्रामीण दस्तकारों का भारतीय गणतंत्र में गणतान्त्रिक तरीके से जनसंघर्ष के हिमायती रहे हैं और जमीदारों, राजे-रजवाडों, पूंजीपतियों और उनके हिमायती सरकारी हुक्कामों से उग्र जनसंघर्ष के जरिये मोर्चा लेते रहे वहीं माओवादी एक निश्चित विचारधारा के आधार पर संगठित होते रहे और इसमें पहला बलिदान हुआ नक्सलबाडी जनसंघर्ष का! हम इस मुद्दे पर आगे भी कुछ गम्भीर तथ्य रखेंगे अवाम की जानकारी हेतु! क्रमश:

 
AGRAGAMI SANDESH

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