भारतीय जनता पार्टी कार्यकारिणी की गोवा में हुई बैठक से पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवानी ने दूरी बनाये रखी! आडवानी के अलावा यशवन्त सिन्हा, उमा भारती, जसवन्त सिंह, शत्रुघन सिन्हा सहित दो मुख्यमंत्रियों और कई अन्य नेताओं ने भी पार्टी कार्यकारिणी की इस दो दिवसीय बैठक से दूरी बनाये रखी।
पार्टी नेताओं की आपसी तकरार ने भाजपा की छवि घूमिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोडी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसा सिर्फ मोदी के विरोध के चलते हुआ या फिर दूसरा ही कोई कारण है!
जहां तक लालकृष्ण आडवानी का सवाल है, आडवानी चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर की राह पर चल रहे हैं। वे अपनी जिंदगी के इस पडाव पर एक बार देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। आडवानी ने भाजपा की बुनियाद से लेकर उसे वटवृक्ष की तरह फैलाने तक के सफर में अपना अहम किरदार निभाया है। जब भाजपा पहली बार 13 दिन के लिये सत्ता में आई तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने! उसके बाद जब भाजपा पुन: सत्ता में आई तब आडवानी को गृह मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। लेकिन आडवानी की जिद रही कि उन्हें उपप्रधानमंत्री पद से नवाजा जाये और अन्तत: भाजपा नेतृत्व को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। आडवानी की यह जिद ठीक उसी तरह थी, जिस तरह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के समय चौधरी देवीलाल की थी।
आज लालकृष्ण आडवानी की एक ही ख्वाइश है कि उनकी चढती उम्र के मद्देनजर उन्हें एक बार देश के प्रधानमंत्री पद पर स्थापित कर दिया जाये! इसके अलावा उनकी ओर कोई ख्वाइश नजर भी नहीं आ रही है। अगर उनकी इस इच्छा का भाजपा और आरएसएस नेतृत्व सम्मान करता है तो उनका झमेला खत्म! लेकिन अगर आरएसएस और भाजपा नेतृत्व घोषित रूपसे इसे स्वीकार करता है तो यह भी साफ है कि उसे आम चुनावों में लीड लेने में काफी मशक्कत करनी होगी! यशवन्त सिन्हा और मुख्यमंत्रियों को छोड़ दें तो कोप भवन में बैठे अन्य नेताओं की नाराजगी भाजपा में कोई मायने नहीं रखती है। सभी जानते हैं कि अवाम में उनकी कितनी पैठ है और वे पार्टी के लिये कितने महत्वपूर्ण हैं?
लेकिन वक्त के इस मुकाम पर भाजपा और आरएसएस को काफी संजीदगी और कुशलता से फैसले लेने होंगे अन्यथा पिछडने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा!
पार्टी नेताओं की आपसी तकरार ने भाजपा की छवि घूमिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोडी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसा सिर्फ मोदी के विरोध के चलते हुआ या फिर दूसरा ही कोई कारण है!
जहां तक लालकृष्ण आडवानी का सवाल है, आडवानी चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर की राह पर चल रहे हैं। वे अपनी जिंदगी के इस पडाव पर एक बार देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। आडवानी ने भाजपा की बुनियाद से लेकर उसे वटवृक्ष की तरह फैलाने तक के सफर में अपना अहम किरदार निभाया है। जब भाजपा पहली बार 13 दिन के लिये सत्ता में आई तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने! उसके बाद जब भाजपा पुन: सत्ता में आई तब आडवानी को गृह मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। लेकिन आडवानी की जिद रही कि उन्हें उपप्रधानमंत्री पद से नवाजा जाये और अन्तत: भाजपा नेतृत्व को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। आडवानी की यह जिद ठीक उसी तरह थी, जिस तरह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के समय चौधरी देवीलाल की थी।
आज लालकृष्ण आडवानी की एक ही ख्वाइश है कि उनकी चढती उम्र के मद्देनजर उन्हें एक बार देश के प्रधानमंत्री पद पर स्थापित कर दिया जाये! इसके अलावा उनकी ओर कोई ख्वाइश नजर भी नहीं आ रही है। अगर उनकी इस इच्छा का भाजपा और आरएसएस नेतृत्व सम्मान करता है तो उनका झमेला खत्म! लेकिन अगर आरएसएस और भाजपा नेतृत्व घोषित रूपसे इसे स्वीकार करता है तो यह भी साफ है कि उसे आम चुनावों में लीड लेने में काफी मशक्कत करनी होगी! यशवन्त सिन्हा और मुख्यमंत्रियों को छोड़ दें तो कोप भवन में बैठे अन्य नेताओं की नाराजगी भाजपा में कोई मायने नहीं रखती है। सभी जानते हैं कि अवाम में उनकी कितनी पैठ है और वे पार्टी के लिये कितने महत्वपूर्ण हैं?
लेकिन वक्त के इस मुकाम पर भाजपा और आरएसएस को काफी संजीदगी और कुशलता से फैसले लेने होंगे अन्यथा पिछडने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा!