कर्नाटक में लम्बे अन्तराल के बाद कांग्रेस की पूर्ण बहुमत के साथ वापसी हुई है। वैसे कांग्रेसी अपनी जीत के कितने भी दावे करें हकीकत में यह कांग्रेस की जीत नहीं है। यह भी सही है कि कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पडा। लेकिन वास्तव में हकीकत यह है कि प्रदेश के इन चुनावों में येदियुरप्पा की पार्टी को गहरी शिकस्त मिली, लेकिन येदियुरप्पा जीत गये।
दरअसल देखा जाये तो कर्नाटक में भाजपा की हार का मूल कारण पार्टी में हुई अन्दरूनी उठापटक ही है। पिछले कुछ अर्से में कर्नाटक में तीन मुख्यमंत्री बदल गये! लेकिन भाजपा अपनी अंदरूनी कलह को नहीं सुलझा पाई। पार्टी में सुषमा स्वराज्य की जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी ने भी कर्नाटक में भाजपा का खेल बिगाडा।
जहां-जहां भाजपा और कर्नाटक जनता पार्टी के उम्मीदवार एक दूसरे के आमने-सामने रहे वहां अगर दोनों के वोटों को जोडा जाये तो उनको सम्मिलित रूप से जितने वोट मिले उनसे कांग्रेस के उम्मीदवार को कम वोट मिले! अगर येदियुरप्पा भाजपा के साथ होते तो भाजपा को 40 के स्थान पर कम से कम 97 सीटें मिलती इस ही तहर रेड्डी बन्धुओं और पूर्व विधायक श्रीरामुलू की वजह से भी भाजपा को नौ सीटों का नुकसान उठाना पडा। अगर इन सीटों पर भाजपा का कब्जा हो जाता हो कांग्रेस की सीटें घट कर 82 के आसपास ही रह जाती। ऐसी स्थिति में यह साफ हो जाता है कि सुषमा स्वराज्य और येदियुरप्पा के घमासान में कांग्रेस की बल्ले-बल्ले हो गई और सत्ता का छींका कांग्रेस की झोली में जा गिरा।
राजस्थान में भी कर्नाटक जैसी ही स्थिति बनी हुई है। अपना वर्चस्व बनाने के लिये श्रीमती वसुन्धरा राजे पिछले चार साल तक राज्य की राजनीति से दूर कोपभवन में रहीं। श्रीमती वसुन्धरा राजे राजस्थान में भाजपा की बेताज की बादशहत पाने के लिये पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व से मोर्चा लेती रही और आखीरकार अपनी बात मनवा कर ही श्रीमती वसुन्धरा राजे भाजपा के चुनावी रथ पर सवार हुई। नतीजन भाजपा की स्वराज्य संकल्प यात्रा आम अवाम की नजरों मेें मैडमजी की स्वंयसत्ता प्राप्ति यात्रा बन कर रह गई है।
मेवाड़ में किरण माहेश्वरी, नन्दलाल मीणा बनाम गुलाबचंद कटारिया का घमासान मैडमजी ने देख ही लिया। हाडौती में भाजपा के वरिष्ठ नेता ललित किशोर चतुर्वेदी एण्ड कम्पनी की नाराजगी के साथ-साथ कार्यकर्ताओं की बेरूखी तथा भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में पैठी नाराजगी-हताशा भी मैडमजी ने देख ही ली है। आगे घनश्याम तिवारी जैसे वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के हालात भी वे देखेंगी ही!
कार्यकर्ताओं में श्रीमती वसुन्धरा राजे की सोच से भी गहरी हताशा और नाराजगी है। राजे ने अपनी स्वराज्य संकल्प यात्रा में आज तक कहीं भी यह नहीं कहा कि पिछले चार सालों में उन्होंने राज्य की जनता के लिये नेता विपक्ष की हैसियत से क्या किया? वहीं अगर वे सत्ता में आती हैं तो आम अवाम को उनके दु:ख तकलीफों में क्या इमदाद पहुंचाने का सोच रखती हैं। उनका सारा फोकस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर आरोप लगाने तक सीमित है। यह भी सही है कि वक्त बेवक्त अशोक गहलोत भी उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाने से नहीं चूक रहे हैं।
उधर उडनखटोले में घूम-घूम कर सांसद किरोड़लाल मीणा भी मैडमजी की हवा बिगाडऩे में जुटे हैं। अब धीरे-धीरे साफ होने लगा है कि भाजप के भी कुछ वरिष्ठ नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे के पैरों के नीचे की धरती खिसकाने की जुगत बैठा रहे हैं।
उधर वामपंथी जनवादी दल भी अपनी रणनीति के तहत चुनावी मैदान में उतरने के लिये तैयारी में जुटे हैं। इनके साथ एक प्लस पाइंट यह भी जुड गया है कि बड़े समाचार पत्रों में इनकी चुनावी गतिविधियों के बारे में एक तरह से ब्लैकआउट चल रहा है। ऊपरी तौर पर यह वाम-जनवादियों के लिये परेशानी वाला सबब हो सकता है, लेकिन अवाम से उनके सीधे सम्पर्क कार्यक्रम में यह फायदेमन्द भी है। क्योंकि उनके क्रियाकलापों की चर्चा नहीं होने से कोई समस्या पैदा नहीं हो रही है। हां, यह जरूर तैय है कि इनके अवाम से सम्पर्क अभियान का विपरीत असर कांग्रेस और भाजपा पर ही पड़ेगा। लाल झण्डे वाले जितनी सीटें और वोट बटोरेंगे वे भाजपा और कांग्रेस के खेमे के ही टूटेंगे। एक बात ओर! इस बार युवाओं के वोट भी लाल झण्डे वालों को थोक में मिलने की गुंजाइश बढ़ रही है। अब फायदा कैसे उठाया जाये, यह इन पार्टियों के नेताओं की सोच पर निर्भर है।
वैसे कुल मिला कर राजस्थान में चुनाव अशोक गहलोत बनाम श्रीमती वसुन्धरा राजे बनता जा रहा है और भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गौण नजर आ रही है। वहीं देश में मध्यावधि चुनावों की गुंजाइश बढ़ी ही जा रही है। इसलिये फिलहाल जीत-हार का कयास लगाना भी बेमानी है।
दरअसल देखा जाये तो कर्नाटक में भाजपा की हार का मूल कारण पार्टी में हुई अन्दरूनी उठापटक ही है। पिछले कुछ अर्से में कर्नाटक में तीन मुख्यमंत्री बदल गये! लेकिन भाजपा अपनी अंदरूनी कलह को नहीं सुलझा पाई। पार्टी में सुषमा स्वराज्य की जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी ने भी कर्नाटक में भाजपा का खेल बिगाडा।
जहां-जहां भाजपा और कर्नाटक जनता पार्टी के उम्मीदवार एक दूसरे के आमने-सामने रहे वहां अगर दोनों के वोटों को जोडा जाये तो उनको सम्मिलित रूप से जितने वोट मिले उनसे कांग्रेस के उम्मीदवार को कम वोट मिले! अगर येदियुरप्पा भाजपा के साथ होते तो भाजपा को 40 के स्थान पर कम से कम 97 सीटें मिलती इस ही तहर रेड्डी बन्धुओं और पूर्व विधायक श्रीरामुलू की वजह से भी भाजपा को नौ सीटों का नुकसान उठाना पडा। अगर इन सीटों पर भाजपा का कब्जा हो जाता हो कांग्रेस की सीटें घट कर 82 के आसपास ही रह जाती। ऐसी स्थिति में यह साफ हो जाता है कि सुषमा स्वराज्य और येदियुरप्पा के घमासान में कांग्रेस की बल्ले-बल्ले हो गई और सत्ता का छींका कांग्रेस की झोली में जा गिरा।
राजस्थान में भी कर्नाटक जैसी ही स्थिति बनी हुई है। अपना वर्चस्व बनाने के लिये श्रीमती वसुन्धरा राजे पिछले चार साल तक राज्य की राजनीति से दूर कोपभवन में रहीं। श्रीमती वसुन्धरा राजे राजस्थान में भाजपा की बेताज की बादशहत पाने के लिये पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व से मोर्चा लेती रही और आखीरकार अपनी बात मनवा कर ही श्रीमती वसुन्धरा राजे भाजपा के चुनावी रथ पर सवार हुई। नतीजन भाजपा की स्वराज्य संकल्प यात्रा आम अवाम की नजरों मेें मैडमजी की स्वंयसत्ता प्राप्ति यात्रा बन कर रह गई है।
मेवाड़ में किरण माहेश्वरी, नन्दलाल मीणा बनाम गुलाबचंद कटारिया का घमासान मैडमजी ने देख ही लिया। हाडौती में भाजपा के वरिष्ठ नेता ललित किशोर चतुर्वेदी एण्ड कम्पनी की नाराजगी के साथ-साथ कार्यकर्ताओं की बेरूखी तथा भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में पैठी नाराजगी-हताशा भी मैडमजी ने देख ही ली है। आगे घनश्याम तिवारी जैसे वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के हालात भी वे देखेंगी ही!
कार्यकर्ताओं में श्रीमती वसुन्धरा राजे की सोच से भी गहरी हताशा और नाराजगी है। राजे ने अपनी स्वराज्य संकल्प यात्रा में आज तक कहीं भी यह नहीं कहा कि पिछले चार सालों में उन्होंने राज्य की जनता के लिये नेता विपक्ष की हैसियत से क्या किया? वहीं अगर वे सत्ता में आती हैं तो आम अवाम को उनके दु:ख तकलीफों में क्या इमदाद पहुंचाने का सोच रखती हैं। उनका सारा फोकस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर आरोप लगाने तक सीमित है। यह भी सही है कि वक्त बेवक्त अशोक गहलोत भी उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाने से नहीं चूक रहे हैं।
उधर उडनखटोले में घूम-घूम कर सांसद किरोड़लाल मीणा भी मैडमजी की हवा बिगाडऩे में जुटे हैं। अब धीरे-धीरे साफ होने लगा है कि भाजप के भी कुछ वरिष्ठ नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे के पैरों के नीचे की धरती खिसकाने की जुगत बैठा रहे हैं।
उधर वामपंथी जनवादी दल भी अपनी रणनीति के तहत चुनावी मैदान में उतरने के लिये तैयारी में जुटे हैं। इनके साथ एक प्लस पाइंट यह भी जुड गया है कि बड़े समाचार पत्रों में इनकी चुनावी गतिविधियों के बारे में एक तरह से ब्लैकआउट चल रहा है। ऊपरी तौर पर यह वाम-जनवादियों के लिये परेशानी वाला सबब हो सकता है, लेकिन अवाम से उनके सीधे सम्पर्क कार्यक्रम में यह फायदेमन्द भी है। क्योंकि उनके क्रियाकलापों की चर्चा नहीं होने से कोई समस्या पैदा नहीं हो रही है। हां, यह जरूर तैय है कि इनके अवाम से सम्पर्क अभियान का विपरीत असर कांग्रेस और भाजपा पर ही पड़ेगा। लाल झण्डे वाले जितनी सीटें और वोट बटोरेंगे वे भाजपा और कांग्रेस के खेमे के ही टूटेंगे। एक बात ओर! इस बार युवाओं के वोट भी लाल झण्डे वालों को थोक में मिलने की गुंजाइश बढ़ रही है। अब फायदा कैसे उठाया जाये, यह इन पार्टियों के नेताओं की सोच पर निर्भर है।
वैसे कुल मिला कर राजस्थान में चुनाव अशोक गहलोत बनाम श्रीमती वसुन्धरा राजे बनता जा रहा है और भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गौण नजर आ रही है। वहीं देश में मध्यावधि चुनावों की गुंजाइश बढ़ी ही जा रही है। इसलिये फिलहाल जीत-हार का कयास लगाना भी बेमानी है।